गुप्तकालीन कला...!!!
गुप्त कला का विकास भारत में गुप्त साम्राज्य के शासनकाल में (२०० से ३२५ ईस्वी में) हुआ।[1] इस काल की वास्तुकृतियों में मंदिर निर्माण का ऐतिहासिक महत्त्व है। बड़ी संख्या में मूर्तियों तथा मंदिरों के निर्माण द्वारा आकार लेने वाली इस कला के विकास में अनेक मौलिक तत्व देखे जा सकते हैं जिसमें विशेष यह है कि ईंटों के स्थान पर पत्थरों का प्रयोग किया गया। इस काल की वास्तुकला को सात भागों में बाँटा जा सकता है- राजप्रासाद, आवासीय गृह, गुहाएँ, मन्दिर, स्तूप, विहार तथा स्तम्भ।
गुप्तकालीन मूर्ति शिल्प
चीनी यात्री फाह्यान ने अपने विवरण में गुप्त नरेशों के राजप्रासाद की बहुत प्रशंसा की है। इस समय के घरों में कई कमरे, दालान तथा आँगन होते थे। छत पर जाने के लिए सीढ़ियाँ होती थीं जिन्हें सोपान कहा जाता था। प्रकाश के लिए रोशनदान बनाये जाते थे जिन्हें वातायन कहा जाता था। गुप्तकाल में ब्राह्मण धर्म के प्राचीनतम गुहा मंदिर निर्मित हुए। ये भिलसा (मध्य-प्रदेश) के समीप उदयगिरि की पहाड़ियों में स्थित हैं। ये गुहाएँ चट्टानें काटकर निर्मित हुई थीं। उदयगिरि के अतिरिक्त अजन्ता, एलोरा, औरंगाबाद और बाघ की कुछ गुफाएँ गुप्तकालीन हैं। इस काल में मंदिरों का निर्माण ऊँचे चबूतरों पर हुआ। शुरू में मंदिरों की छतें चपटी होती थीं बाद में शिखरों का निर्माण हुआ। मंदिरों में सिंह मुख, पुष्पपत्र, गंगायमुना की मूर्तियाँ, झरोखे आदि के कारण मंदिरों में अद्भुत आकर्षण है।

